रॉल्स के न्याय का सामाजिक संविदाकरण का सिद्धांत - एक आलोचनात्मक अध्ययन

Authors

  • Raj Deo Singh Assistant Professor, Department of Law, K.G.K. (P.G.) College,Moradabad, U.P.

Keywords:

Capitalism

Abstract

न्याय किसी भी विधिक व्यवस्था को स्थायित्व प्रदान करने का मूल तत्व है। यही वह आधार है जिस पर किसी राज्य की प्रगति, सुख समृद्धि, निर्भर करती है। इसलिए प्रत्येक सभ्य एवं सुस्थापित विधिक-व्यवस्था का प्रधान लक्ष्य न्याय प्रदत्तीकरण होता है। प्रजातांत्रिक सरकारों में तो न्याय की भूमिका और भी महत्वपूर्ण होती है। सरकार की सभी नीतियाँ, योजनायें एवं कार्यक्रम इसे ही लक्ष्य करके बनाये जाते हैं। न्याय स्वयं अपने आप में एक जटिल (ब्वउचसमग) एवं गत्यात्मक (क्लदवउपब) संकल्पना है। इसीलिए रोमन काल में न्याय के लिए प्रोटेरियन शब्द (बदलने वाला देवता) का प्रयोग हुआ है। यह प्रत्येक युग, समय काल एवं परिस्थितियों के हिसाब से अपना स्वरूप बदलना रहता है। आज जिसे हम न्याय कह रहे हैं, हो सकता है कि वह कल न्याय न हो या जो हमें वर्तमान में अन्याय लग रहा है हो सकता है कि भविष्य में वही न्याय हो जाये। इसका प्रयोग बहुत सरल एवं जटिल दोनों अर्थो में किया जाता है। यह कोई एक निश्चित चीज नहीं है जिसे एक प्रयास से हम प्राप्त कर सकते हैं, बल्कि यह सतत् प्राप्त किये जाने वाली चीज है। किसी सामाजिक व्यवस्था में यह हमें विभिन्न रूपों में मिल सकता है।

Downloads

Download data is not yet available.

Downloads

Published

2022-09-22

How to Cite

Singh, R. (2022). रॉल्स के न्याय का सामाजिक संविदाकरण का सिद्धांत - एक आलोचनात्मक अध्ययन. AGPE THE ROYAL GONDWANA RESEARCH JOURNAL OF HISTORY, SCIENCE, ECONOMIC, POLITICAL AND SOCIAL SCIENCE, 3(8), 16–22. Retrieved from https://agpegondwanajournal.co.in/index.php/agpe/article/view/168

Issue

Section

Articles