आज़ादी और आदिवासी
Keywords:
आदिवासी, लोकतंत्र, आज़ादीAbstract
सदियों से जंगलों में निवास करनेवाले आदिवासी निराश्रीत हो गये है। उनके भूभागों पर, खेत खलिहानों पर सदी और तालाकें पर बड़े-बड़े उदयोग लगाने के नाम पर सरकार ने कब्जा कर लिया है। कोयला, लोहा आदि बहुमूल्य खनिज पदार्थों के उत्खनन के नाम पर आदिवासीयों की जमिनों एंव पहाड़ों से बेदखल कर दिया गया है। अनपढ़, गरीब एंव असहाय आदिवासी बार-बार विस्थापित एंव पलायन की मार झेल रहा है। विस्थापित एंव पलायन के बाद उसकी आर्थिक, सामाजिक, शैक्षिक और शारिरीक स्थिती और भी अधिक खराब हो जाती है। वन माफिया, खनन माफिया, शिक्षा माफिया, शराब माफिया आदि असामाजिक और असंसदीय लोग आदिवासीयों की बची-खुची हालत को और भी अधिक बदतर कर देते है। अन्ततः गरीब, अनपढ असहाय आदिवासी रोजी रोटी की तलाश मे शहरों की और पलायन करता है और मलिन बस्तियों में सड़क के किनारे झुग्गी झोपडी डालकर भीख मांगता है या हाथतोड़ मेहनत मजदुरी कर अपने बच्चों का पेट पालता है। लोकतन्त्र के नाम पर आदिवासीयों के संबन्ध मे जमिनी सच्चाई यही है। सरकारे आदिवासीयों के उत्थान एंव विकास के नाम पर बड़े-बड़े वादें करती है, बड़ी योजनाएं चलाती है किंतु आदिवासीयों का सारा हक्क एंव सुविधाऐ स्थानिय राजनेता, कार्यकर्ता, अधिकारी एंव कर्मचारी मिल बाँटकर खा जाते हैं। अनपढ एंव असहाय आदिवासीयों को पता तक नहीं चलता कागजों पर सबकुछ हो जाता है। आदिवासीयों को भले कुछ पता नहो किंतु सरकारों को सबकछु पता रहता है। फिर भी वह अनजान एंव अन्धी बनकर कान में तेल डाले पड़ी रहती है।
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Copyright (c) 2020 Dr. Arvind Kumar Gond
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